logo

जयंती : जननायक कर्पूरी ठाकुर की गर्वीली ठसक और सादगी पर कौन न हो जाए निसार

karpuri.jpg

शिवानंद तिवारी, पटना:

हर रंग की राजनीति के बीच हम ही जननायक कर्पूरी ठाकुर (24 जनवरी 1924 - 17 फरवरी 1988) की राजनीति के असली वारिस हैं, यह साबित करने के लिए घमासान मचा ही रहता है। मुख्यधारा की तमाम पार्टियाँ उनकी जयंती मनाकर उनको अपना साबित करने की कोशिश करती रही हैं। इस मारामारी और घमासान के पीछे एक ही मक़सद है। कमज़ोर जातियों को अपनी ओर आकर्षित कर अपने पीछे उनको गोलबंद करना। दूसरी ओर इन तमाम धूम-धड़ाकों से दूर छोटी-छोटी और कमज़ोर जातियों के लोग भी जहाँ -तहाँ इकट्ठा होकर कर्पूरीजी के चित्र पर फूल माला अर्पित कर उनके प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित करेंगे। यह जमात कर्पूरी जी की राजनीति की विरासत की दावेदारी के लिए उनकी जयंती नहीं मनाती है। कर्पूरीजी उनके लिए वोट हासिल करने के माध्यम नहीं हैं। ये कर्पूरी जी पर गर्व करने वाले लोग हैं। उनको इस बात का फ़ख्र होता है कि उँगली पर गिनी जा सकने वाली जाति में पैदा होने वाला नाटे क़द का यह विलक्षण आदमी कैसे राजनीति के शीर्ष पर पहुँच गया ! उनका दिल कचोटता है। हम जो कर्पूरीजी की जैसी छोटी और कमज़ोर जाति में पैदा होने वाले लोग हैं, आज की राजनीति में कहाँ है !

 

 

यह एक मौजूं सवाल है। हमारे सामने आज जो राजनीतिक परिदृश्य है उसके देखते हुए क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जैसी जाति में पैदा होने वाला व्यक्ति उनकी या उनके आस-पास की उंचाई तक पहुँच सकता है !फिर यह सवाल उठता है कि कर्पूरीजी ने कैसे वह मुकाम हासिल कर लिया ! इस सवाल का जवाब हमें उनके राजनीतिक जीवन के सफ़र में तलाश करने की कोशिश करनी होगी। कर्पूरीजी का जन्म ग़ुलाम भारत में हुआ था। जब वे जवान हो रहे थे उस समय आज़ादी की लड़ाई परवान पर थी। संवेदनशील और युवा कर्पूरी इस लड़ाई से अपने आपको अलग नहीं रख पाए। पढ़ाई छोड़कर आजादी के उस संग्राम में शामिल हो गए। फलस्वरूप जेल यात्रा करनी पड़ी।जेल के भीतर भी चुपचाप जेल नहीं काटा।बल्कि वहाँ के भ्रष्टाचार और अन्याय के विरुद्ध लंबा उपवास किया।इसी दरम्यान वे कांग्रेस की भीतर समाजवादियों के साथ जुड़ गए।

 

 

आज़ादी के बाद कर्पूरीजी कांग्रेस के साथ नहीं गए। बल्कि समाजवादियों के ही साथ रहे। समतावादी समाज की स्थापना का सपना देखने वाले उस जमात में सिर्फ़ पिछड़े ही नहीं थे। बल्कि समाज के नवनिर्माण का साझा सपना देखने वालों की उस जमात में अगड़े-पिछड़े सब शामिल थे। शीर्ष पर तो अगड़ों की तादाद ही ज़्यादा थी।आज़ादी के बाद दो-तीन दशक तक समाजवादियों की गाथा संघर्ष की गाथा है। मार खाना, जेल जाना, उपवास करना प्राय: उस समय का नियम था। मजदूर संगठनों से भी कर्पूरीजी जुड़ाव था। डाक-तार विभाग के कर्मचारियों के हड़ताल में जेल गए।गोमिया ऑर्डिनेन्स फ़ैक्टरी(गिरडीह)में हड़ताल करवाया। वहाँ भूखहड़ताल किया।1965 में गांधी मैदान में मेरे सामने कर्पूरी जी, तिवारीजी, कम्युनिस्ट पार्टी के चन्द्रशेखर सिंह, रामअवतार शास्त्री सहित कई नेताओं को गांधी मैदान में बुरी तरह पुलिस से पिटवाया गया। कर्पूरी जी की हाथ की हड्डी दो जगहों पर टूट गई थी। उस समय बिहार में केबी सहाय की सरकार थी। हिंदी पट्टी में अपने संघर्ष के ज़रिए समाजवादियों ने समाज के शोषित और वंचित तबक़ों को जगाया।कर्पूरीजी उस संघर्ष के अगुआ नेता थे। 

 

 

इन सबके अलावा कर्पूरीजी में विलक्षण नैसर्गिक प्रतिभा के भी धनी थे। यहाँ उसका दो उदाहरण मैं देना चाहूँगा। पहला उदाहरण जिसके विषय में उमेश्वर बाबू(उमेश्वर प्रसाद सिंह, बिहार सेवा के तत्कालीन पदाधिकारी जो कर्पूरीजी के आप्त सचिव हुआ करते थे) ने मुझे बताया था। कर्पूरीजी के मुख्यमंत्रीत्व काल में बी.आई.टी. मेसरा, राँची में राकेट साइंस से जुड़े वैज्ञानिकों का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था।मुख्यमंत्री के तौर पर कर्पूरीजी को उसका उद्घाटन करना था। सम्मेलन में जाने के लिए पटना से चलने के पहले ब्रिटानिका इन्साक्लोपीडिया का राकेट साइंस वाला खंड ले लेने के लिए उमेश्वर बाबू को उन्होने कह दिया था। सरकारी जहाज़ में बैठने के बाद उमेश्वर बाबू से ब्रिटानिका इन्साक्लोपीडिया का वह खंड लेकर 40-50 मिनट की उस हवाई यात्रा के दरम्यान राकेट साइंस के विषय में जितना जानना था उन्होने जान लिया। उमेश्वर बाबू ने बताया कि कर्पूरीजी जी का उस सम्मेलन में जो भाषण हुआ उसने सम्मेलन में शरीक राकेट साइंस के सभी वैज्ञानिकों को चकित कर दिया। कोई राजनेता राकेट साइंस जैसे दुरूह तकनीकी विषय पर इतनी जानकारी के साथ बोल सकता है इसकी कल्पना उनलोगों को नहीं थी।

 

कर्पूरी जी की चकित करने वाली प्रतिभा की दूसरी घटना का गवाह मैं स्वंय हूँ। भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनकी गहरी रुचि थी। उन दिनों पटना के दशहरा पूजा के दरम्यान होने वाले संगीत समारोहों की देश भर में धूम थी। शहर में जगह-जगह देश भर के प्रतिष्ठित गायक,वादक और नर्तकों का जुटान होता था। इन समारोहों में कहीं न कहीं कर्पूरी जी संगीत का आनंद लेते बैठे ज़रूर दिखाई दे जाते थे।एक मर्तबा पटना कालेजियट स्कूल के मैदान में स्व. रामप्रसाद यादव की भारतमाता मंडली द्वारा आयोजित समारोह का अंतिम कार्यक्रम हो रहा था। मंच पर बिस्‍मिल्‍लाह खान साहब और उस्ताद अब्दुल हलीम जाफ़र खान साहब का संयुक्त कार्यक्रम था।अद्भुत था वह कार्यक्रम। समापन के बाद जब हमलोग चलने लगे तब मेरी नज़र कर्पूरीजी पर पड़ी। वे भी चलने लगे थे। अचानक रामप्रसाद जी ने कार्यक्रम समापन पर धन्यवाद ज्ञापन के लिए कर्पूरीजी को आमंत्रित कर दिया। कर्पूरीजी ने धन्यवाद ज्ञापन भाषण में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की गंगा-जमुनी चरित्र पर चंद मिनटों में जो कुछ कहा उसकी गूंज आज तक मुझसे अलग नहीं हुई है।उसके बाद तो दोनो कलाकारों ने कर्पूरीजी को पकड़ कर एक तरह से उठा लिया! बिस्‍मिल्‍लाह खान साहब ने कहा कि मैं इतने दिनों से पटना आ रहा हूँ।अब तक आप कहाँ छिपे थे गुदड़ी के लाल !

आज हमसब लोगों ने कर्पूरीजी को अतिपिछड़ा के चौखट पर टाँग दिया है। यह ठीक है कि सबकी तरह कर्पूरीजी की भी जाति थी। ऐसी जाति जो अतिपिछड़ों में भी पिछड़ी है। लेकिन कर्पूरीजी ने जो मुक़ाम हासिल किया है उसका आधार उनकी जाति में देखना उनको छोटा बनाना होगा। कर्पूरीजी ने संघर्ष किया था। देश को आज़ाद कराने का संघर्ष। आजादी के बाद देश में समाजवादी समाज बनाने का संघर्ष।संघर्ष की आँच मे तपकर निखरे थे कर्पूरीजी। समाजवादी आंदोलन की ताक़त ने उनको उस उंचाई पर पहुँचने का आधार प्रदान किया था जिसके वे हक़दार थे। समाजवादी आंदोलन की वह धारा आज सुख गई है। इसलिए जबतक वह धारा पुनर्जीवित नहीं होगी तबतक कमजोर समाज से तेजस्वी नेतृत्व उभरने की संभावना मुझे नहीं दिखाई दे रही है।

(बिहार के भोजपुर में जन्मे लेखक शिवानंद तिवारी देश की लोहियावादी बिरादरी के अहम स्तंभ हैं। सेकुलरिज्म और समाजवादी विचारों के लिए उनकी पहचान है। राजद के उपाध्यक्ष हैं। राज्यसभा सांसद भी रहे।) 

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।